कांकेर में धर्म के नाम पर अमानवीयता – मसीही व्यक्ति की लाश दो दिन से मॉर्च्यूरी में, ग्रामीण बोले “गांव की मिट्टी अपवित्र हो जाएगी”…

कांकेर। धर्म, परंपरा और संवैधानिक अधिकार – तीनों के बीच फंसा एक शव। कांकेर जिले के कोडेकुर्से गांव में मसीही समाज के व्यक्ति मनीष निषाद (50) की मौत के बाद अंतिम संस्कार भी विवाद का विषय बन गया है। परिजन जब अपनी निजी जमीन में शव दफनाने पहुंचे, तो ग्रामीणों ने “गांव की सरहद अपवित्र हो जाएगी” कहकर रोक दिया। अब हालत यह है कि मनीष निषाद की लाश पिछले दो दिनों से अस्पताल की मॉर्च्यूरी में पड़ी है, और परिवार अपने ही खेत में दफनाने की इजाजत के लिए भटक रहा है।
ग्रामीणों का फरमान – “गांव में मसीही रीति नहीं चलेगी” : मनीष निषाद और उनका परिवार कुछ वर्ष पहले ईसाई धर्म अपना चुका था। मंगलवार को परिजन शव लेकर गांव पहुंचे और अपनी निजी जमीन में कब्र खोदने लगे। तभी ग्रामीणों ने आकर धार्मिक आधार पर विरोध शुरू कर दिया। ग्रामीणों का तर्क –
“गांव की सरहद में दफनाने से रीतियों का अपमान होगा, बैगा और समाज प्रमुख की अनुमति के बिना कोई लाश नहीं दफनाई जाएगी।”
गांव के दबाव के आगे प्रशासन भी झुक गया, और पुलिस केवल “समझाइश” देकर लौट आई।
थाने का घेराव, फिर भी नहीं मिला न्याय : विवाद बढ़ने पर मसीही समाज के लोग थाने पहुंचे और शव दफनाने की अनुमति की मांग को लेकर घेराव किया। परिजनों ने कहा –
“हम अपने ही खेत में दफनाना चाहते हैं, पर गांव वाले रोक रहे हैं। यह हमारा अधिकार है।”
लेकिन प्रशासन ने तत्काल कोई निर्णय नहीं लिया। अब पुलिस ने शव को कोडेकुर्से अस्पताल के चीरघर (मॉर्च्यूरी) में रखवा दिया है। दो दिन बीत चुके हैं, न शव दफनाया गया और न समाधान मिला।
पहले भी कांकेर में हुआ था ‘धार्मिक उन्माद’ : यह कोई पहली घटना नहीं। 24 जुलाई 2025 को कांकेर के जामगांव में भी एक ईसाई व्यक्ति के शव को दफनाने पर साम्प्रदायिक हिंसा भड़क गई थी।
500 से 1000 लोगों की भीड़ ने चर्चों और घरों में तोड़फोड़ की थी।
घर का सामान बाहर फेंक दिया गया था। और आज, वही इतिहास कोडेकुर्से में फिर लिखा जा रहा है – जहाँ मरने के बाद भी धर्म का प्रमाणपत्र माँगा जा रहा है।
अनुग्रह प्रार्थना भवन, चारामा के पास्टर मोहन ग्वाल ने कहा –
“मनीष निषाद की निजी जमीन में ही दफन की तैयारी थी। पर गांव वालों ने रोक दिया। अब शव दो दिन से मॉर्च्यूरी में पड़ा है। हमारे पास कोई वैकल्पिक जगह नहीं। प्रशासन से मदद की गुहार लगाई है।”
एडिशनल एसपी आकाश श्रीमाल ने कहा –
“मसीही समाज के लोगों ने निर्णय के लिए कल सुबह 10 बजे तक का समय मांगा है। इसके बाद स्थिति के अनुसार कार्रवाई की जाएगी।”
प्रशासन की यह प्रतिक्रिया यह साबित करती है कि संविधान से ज्यादा ताकत अब भीड़ के हक में है।
जब इंसान मर जाए, तब भी धर्म न मरे : कांकेर की यह घटना केवल एक गांव की नहीं, बल्कि धर्म की आड़ में बढ़ती असहिष्णुता और प्रशासनिक कायरता का चेहरा है। एक परिवार अपने निजी खेत में अपने धर्मानुसार अंतिम संस्कार करना चाहता है,
और गांव की भीड़ उसे रोक रही है – यह न सिर्फ धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है, बल्कि मानवता का अपमान भी है।
संविधान सवाल पूछ रहा है
- क्या इस देश में कोई व्यक्ति मरने के बाद भी अपने धर्म के अनुसार विदाई नहीं पा सकता?
- क्या संवैधानिक अधिकार गांव की “परंपरागत पंचायत” से छोटे हो गए हैं?
- कांकेर की यह घटना सिर्फ एक शव की नहीं, बल्कि भारत की आत्मा की परीक्षा है।
जब आस्था अपमानित होती है, तो सिर्फ एक लाश नहीं, पूरी इंसानियत दफन होती है।
