अंबिकापुर

सुलगा ‘छत्तीसगढ़ का शिमला’: जान देने तैयार, पर खदान नहीं! मैनपाट में ग्रामीणों का उग्र प्रदर्शन, उखाड़ फेंका जनसुनवाई का तंबू…

सरगुजा। छत्तीसगढ़ के पर्यटन मानचित्र पर ‘शिमला’ के नाम से मशहूर मैनपाट की शांत वादियां आज बारूद की तरह सुलग उठीं। 30 नवंबर को प्रस्तावित बॉक्साइट खदान की पर्यावरणीय जनसुनवाई उस वक्त रणक्षेत्र में तब्दील हो गई, जब आक्रोशित ग्रामीणों ने न केवल प्रशासन और कंपनी का विरोध किया, बल्कि जनसुनवाई के लिए लगाए गए टेंट और पंडाल को ही उखाड़ फेंका।

मैनपाट के कंडराजा और उरंगा गांवों में प्रस्तावित इस खदान के विरोध में ग्रामीणों ने साफ संदेश दिया है – “हमें विनाश नहीं, अपना जंगल चाहिए।”

घटनास्थल से ग्राउंड रिपोर्ट : कब, क्या और कैसे हुआ? – नर्मदापुर के स्टेडियम ग्राउंड में आज सुबह 11 बजे ‘मां कुदरगढ़ी एलुमिना प्राइवेट लिमिटेड’ के लिए पर्यावरणीय जनसुनवाई तय थी। प्रशासन ने सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए थे, लेकिन ग्रामीणों का आक्रोश पुलिसिया बैरिकेड्स पर भारी पड़ा।

  • हंगामा: जिला पंचायत सदस्य रतनी नाग के नेतृत्व में हजारों की संख्या में ग्रामीण कार्यक्रम स्थल पर पहुंचे। नारेबाजी करते हुए भीड़ ने जनसुनवाई के लिए लगाए गए टेंट को उखाड़ दिया।
  • पुलिस से झड़प: पुलिस ने भीड़ को रोकने की कोशिश की, लेकिन ग्रामीणों के उग्र तेवरों के आगे जनसुनवाई शुरू नहीं हो सकी। प्रशासन को अंततः ग्रामीणों के गुस्से का सामना करना पड़ा।

बड़ा आरोप: “शराब पिलाकर जंगल सौदा करने की साजिश” – विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व कर रही जिला पंचायत सदस्य रतनी नाग ने निजी कंपनी पर बेहद गंभीर आरोप लगाए हैं। उन्होंने दावा किया कि कंपनी ने जनसुनवाई से एक रात पहले ग्रामीणों की आवाज दबाने के लिए ‘शराब नीति’ अपनाई।

“कंपनी के दलालों ने पूरी रात गांव में शराब बांटी, ताकि लोग नशे में रहें और जनसुनवाई में विरोध न कर सकें। लेकिन वे भूल गए कि जल, जंगल और जमीन बचाने का नशा शराब से कहीं ज्यादा बड़ा है।”रतनी नाग (जिला पंचायत सदस्य)

खतरे की घंटी: हाथियों के रास्ते में बारूद? – विरोध की सबसे बड़ी वजह ‘हाथी-मानव संघर्ष’ का खौफ है। कंडराजा और उरंगा का वह 135.22 हेक्टेयर इलाका, जहां खदान प्रस्तावित है, वह हाथियों का सक्रिय कॉरिडोर माना जाता है।

  1. हाथियों का गुस्सा: ग्रामीणों का तर्क है कि अगर पहाड़ों में ब्लास्टिंग (विस्फोट) हुई, तो हाथी आक्रामक होकर रिहायशी इलाकों का रुख करेंगे, जिससे जान-माल का भारी नुकसान होगा।
  2. पर्यटन पर प्रहार: मैनपाट की पहचान उसके हरे-भरे पहाड़ और ठंडी जलवायु है। ग्रामीणों का कहना है कि खनन से यहां की खूबसूरती धूल और धुएं में खो जाएगी, जिससे पर्यटन उद्योग पूरी तरह ठप हो जाएगा।

मुआवजे का ‘लॉलीपॉप’ और विश्वास का संकट : प्रशासन और कंपनी का तर्क है कि इस प्रोजेक्ट में जमीन का स्थायी अधिग्रहण नहीं होगा।

  • ऑफर: कंपनी ने फसल क्षतिपूर्ति के तौर पर लगभग 80 हजार रुपए प्रति हेक्टेयर/वर्ष देने का प्रस्ताव रखा है।
  • वादा: खनन के बाद जमीन को समतल और खेती योग्य बनाकर किसानों को वापस लौटाया जाएगा।

लेकिन ग्रामीणों ने इस ‘लीज मॉडल’ को सिरे से खारिज कर दिया है। उनका कहना है, “बाल्को और सीएमडीसी की खदानों का हश्र हम देख चुके हैं। खनन के बाद जमीन बंजर हो जाती है और पानी पाताल में चला जाता है। यह मुआवजा हमारी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य की कीमत पर है।”

इतिहास गवाह है: पहले भी छला गया मैनपाट – विरोध कर रहे लोगों का दर्द पुराना है। मैनपाट में पहले भी बाल्को (BALCO) और सीएमडीसी (CMDC) को खदानें आवंटित हुई थीं।

  • नतीजा: पथरई, केसरा और बरिमा जैसे इलाकों में बड़े पैमाने पर पेड़ काटे गए।
  • रोजगार का धोखा: स्थानीय युवाओं का आरोप है कि कंपनियां वादा तो करती हैं, लेकिन खदान शुरू होने पर बाहरी लोगों को काम पर रख लेती हैं और स्थानीय लोग सिर्फ धूल फांकने को मजबूर होते हैं।

प्रशासन के पाले में गेंद : फिलहाल, ग्रामीणों के उग्र प्रदर्शन के कारण जनसुनवाई टल गई है, लेकिन संकट अभी टला नहीं है। यह लड़ाई अब ‘मुनाफे बनाम अस्तित्व’ की बन चुकी है। एक तरफ निजी कंपनी का करोड़ों का निवेश है, तो दूसरी तरफ आदिवासियों की अस्मिता और ‘छत्तीसगढ़ के शिमला’ का पर्यावरण।

Admin : RM24

Investigative Journalist & RTI Activist

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