रायपुर

सत्ता का अहंकार और सच का गला घोंटती व्यवस्था – छत्तीसगढ़ जनसंपर्क कार्यालय में हुई मारपीट में असल अपराधी कौन?…

रायपुर। छत्तीसगढ़ के जनसंपर्क संचालनालय में घटी मारपीट की घटना अब सिर्फ़ एक “ऑफिस झगड़ा” नहीं रही  यह सत्ता के उस अहंकार की परत खोलती है जो सच्चे सवालों से डरती है।
मुख्यधारा के नामचीन अख़बारों ने इसे लिखा  पत्रकारिता के नाम पर गुंडागर्दी” या “जनसंपर्क अधिकारी पर हमला” लेकिन सच्चाई इन हेडिंग्स से बिलकुल उलट है।

जब वीडियो ने खोला सच का चेहरा : सोशल मीडिया पर जो वीडियो वायरल है, वह साफ़ बताता है – काला शर्ट पहना व्यक्ति (पत्रकार) शालीनता से कमरे में प्रवेश करता है, बातचीत सामान्य रहती है, और तभी अचानक जनसंपर्क विभाग के अपर संचालक संजीव तिवारी कुर्सी से उठकर उसी व्यक्ति का गला पकड़ लेते हैं।

इसके बाद पतले-दुबले युवक पर भी झपटते हैं।
जब साथी उसकी जान बचाने की कोशिश करता है, तो उसे भी धक्का देकर बाहर निकाला जाता है।

यानी, हमला किसने किया – यह वीडियो खुद गवाही दे रहा है।
पर अफसोस, यह सच उन चैनलों और अख़बारों तक नहीं पहुँचता जो हर महीने सरकारी विज्ञापनों से मोटी रकम खाते हैं।

एफ़आईआर में नाम नहीं, फिर रात में पुलिस का धावा क्यों? – इस मामले की एफ़आईआर में “चार अज्ञात लोगों” का ज़िक्र है।
न मनोज पांडे का नाम, न कोई स्पष्ट पहचान।
फिर भी आधी रात, 1:37 बजे, पुलिस बिना वारंट, आठ-दस अज्ञात लोगों के साथ मनोज पांडे के घर का गेट तोड़कर घुसती है।

सीसीटीवी का DVR उठाया जाता है, परिवार की महिलाओं से अभद्रता होती है – और यह सब बिना किसी वैधानिक अनुमति के।
क्या यही है लोकतंत्र में “कानून का राज”?
या यह राज अब केवल अधिकारियों और ताक़तवरों के लिए ही रह गया है?

जब सवाल उठाना ‘गुंडागर्दी’ बन जाए : संजीव तिवारी के खुद के लिखित बयान में दर्ज है कि “वे वरिष्ठ पत्रकार पवन दुबे से चर्चा कर रहे थे।” यानी उस वक्त कोई “शासकीय कार्य” चल ही नहीं रहा था।
फिर इस घटना को “शासकीय कार्य में बाधा” का रंग क्यों दिया गया?
क्या सिर्फ़ इसलिए कि सामने वाला व्यक्ति एक पत्रकार था जिसने कुछ असुविधाजनक सवाल पूछ लिए थे?

सत्ता के संरक्षण में हिंसा : इस पूरे घटनाक्रम का सबसे शर्मनाक पहलू यह है कि हमला करने वाला अधिकारी आज भी पद पर है,
और जिसने सवाल उठाया, उसके घर पुलिस भेज दी गई।
इससे बड़ा सत्ता का अहंकार और क्या होगा कि
जिस व्यक्ति ने गला दबाया, वही “पीड़ित” बन गया,
और जिसने जान बचाई, वही “अपराधी” घोषित कर दिया गया।

मीडिया की भूमिका जब कलम बिक जाए : वीडियो सामने है, साक्ष्य सामने हैं,फिर भी बड़े मीडिया संस्थान सत्ता के पक्ष में झूठी कहानी रच रहे हैं। क्यों? क्योंकि उन्हें जनसंपर्क विभाग से मिलने वाले करोड़ों के विज्ञापन गंवाने का डर है।

यही वो दौर है जहाँ
पत्रकारिता नहीं, विज्ञापन प्रबंधन चल रहा है।
जहाँ सच बोलना अपराध है,
और सत्ता की चापलूसी ही “मेनस्ट्रीम पत्रकारिता” कहलाती है।

सवाल सिर्फ़ इस घटना तक सीमित नहीं –

  • संजीव तिवारी दो दशक से एक ही विभाग में पदस्थ हैं।
  • क्या छत्तीसगढ़ सरकार के तबादला नियम केवल निचले कर्मचारियों के लिए हैं?
  • क्या ऊँचे पदों पर बैठे अधिकारी जवाबदेही से ऊपर हैं?
  • अगर यही व्यवस्था है, तो जनता को समझना होगा कि
  • “प्रशासन” अब “सेवा” नहीं, बल्कि “सत्ता सुरक्षा तंत्र” बन चुका है।

जब पत्रकार डरने लगे, तो लोकतंत्र मरने लगता है

मनोज पांडे की गलती सिर्फ़ इतनी थी कि
उन्होंने सवाल उठाया –
क्यों एक अधिकारी वर्षों से एक ही कुर्सी पर बैठा है?
क्यों विभाग में पारदर्शिता नहीं?
और यही सवाल सत्ता को चुभ गए।

आज अगर मनोज पांडे को इस तरह निशाना बनाया जा सकता है,
तो कल कोई भी स्वतंत्र पत्रकार सुरक्षित नहीं रहेगा।

यह सिर्फ़ एक घटना नहीं – एक संकेत है

संकेत इस बात का कि
सत्ता अब आलोचना से घबराने लगी है,
और जब सत्ता डरने लगे, तो वह हिंसक हो जाती है।

जिस पत्रकार का काम है सवाल पूछना,
अब वही सत्ता की नज़र में “खतरा” बन गया है।
और जिस अधिकारी का कर्तव्य है जवाब देना,
वह अब “हमलावर” बनकर संविधान की आत्मा को ललकार रहा है।

जनता तय करेगी सच का पक्ष :

अब जनता को तय करना होगा –
क्या वो सत्ता की बनाई कहानी पर यक़ीन करेगी,
या वीडियो में दिखते उस सच को देखेगी
जिसे मुख्यधारा मीडिया छुपाने की कोशिश कर रहा है?

क्योंकि अगर आज आपने चुप्पी साध ली,
तो कल आपकी आवाज़ भी इन्हीं दीवारों के बीच दबा दी जाएगी।

पूर्व में प्रकाशित खबर :

Admin : RM24

Investigative Journalist & RTI Activist

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