
पत्रकारिता का जन्म ‘सत्ता से सत्य’ बोलने के लिए हुआ था। इसका धर्म था-पीड़ितों को आवाज़ देना और ताकतवर को जवाबदेह बनाना। लेकिन आज भारत में पत्रकारिता जिस दौर से गुजर रही है, उसे इतिहास ‘पत्रकारिता के पतन काल’ के रूप में याद रखेगा। आज का मीडिया ‘चौथा खंभा’ (Fourth Pillar) होने का भ्रम तो पाले हुए है, लेकिन असल में वह खोखला हो चुका है, जिसे दीमक रूपी कॉरपोरेट लालच और राजनीतिक चाटुकारिता ने भीतर से खा लिया है।
‘खबर’ की हत्या और ‘एजेंडे’ का जन्म : आज आप न्यूज़ चैनल खोलिए, आपको खबर नहीं मिलेगी। आपको मिलेगा- शोर, नफरत और एजेंडा।
- स्टूडियो पत्रकारिता का उदय: आज पत्रकार धूप, धूल और पसीने में नहीं, बल्कि वातानुकूलित स्टूडियो में पाए जाते हैं। ग्राउंड रिपोर्टिंग (Ground Reporting) मर चुकी है। मणिपुर जलता रहे या किसान सड़क पर हों, कैमरा वही मुड़ेगा जहाँ ‘मालिक’ का इशारा होगा।
- हेडलाइन मैनेजमेंट: असली मुद्दों- बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य – को हेडलाइंस से गायब कर दिया गया है। उसकी जगह क्या परोसा जा रहा है? पाकिस्तान, सीमा हैदर, और सांप्रदायिक बहसें। यह जनता का ध्यान भटकाने का एक सुनियोजित षड्यंत्र है।
एंकर नहीं, ये ‘प्रवक्ता’ हैं –प्राइम टाइम के एंकर्स आज किसी पार्टी के प्रवक्ता से भी दो कदम आगे निकल गए हैं। उनका काम अब सवाल पूछना नहीं, बल्कि सवाल पूछने वालों को चुप कराना है।
- विपक्ष से सवाल, सत्ता से यारी: दुनिया के हर लोकतंत्र में मीडिया सरकार से सवाल पूछता है। भारत शायद अकेला ऐसा देश है जहां मीडिया विपक्ष से सवाल पूछता है कि “आपने सरकार को काम क्यों नहीं करने दिया?”
- न्यायाधीश की भूमिका: टीवी स्टूडियो आज अदालत बन गए हैं। एंकर ही तय करते हैं कौन देशद्रोही है और कौन देशभक्त। बिना सबूत, बिना तथ्य, किसी की भी पगड़ी उछालना अब ‘पत्रकारिता’ का नया सामान्य (New Normal) है।
कॉरपोरेट का शिकंजा और ‘मीडिया मोनोपोली’ : आज की पत्रकारिता स्वतंत्र नहीं है, वह ‘बैलेंस शीट’ की गुलाम है।
- बड़े मीडिया घरानों का मालिकाना हक उन उद्योगपतियों के पास है जिनके हित (Interests) सरकार की नीतियों से सीधे जुड़े हैं। जब मालिक का मुनाफा सरकार की मेहरबानी पर टिका हो, तो उसका चैनल सरकार के खिलाफ एक शब्द भी कैसे बोलेगा?
- संपादकीय स्वतंत्रता (Editorial Freedom) का अंत: संपादक अब फैसले नहीं लेते, फैसले अब ‘मार्केटिंग डिपार्टमेंट’ और ‘मालिक के केबिन’ में होते हैं। पत्रकार अब वेतनभोगी कर्मचारी मात्र रह गए हैं, जिन्हें स्क्रिप्ट थमा दी जाती है।
‘गोदी मीडिया’ का टैग और विश्वसनीयता का रसातल : ‘गोदी मीडिया’ शब्द यूं ही नहीं गढ़ा गया। यह उस समर्पण और आत्मसमर्पण का प्रतीक है जो मुख्यधारा के मीडिया ने सत्ता के सामने किया है।
- चरणवंदना का दौर: प्रधानमंत्री या मंत्रियों के इंटरव्यू अब ‘पूछताछ’ नहीं, बल्कि ‘जनसंपर्क अभियान’ (PR Exercise) लगते हैं। “आप आम कैसे खाते हैं?” या “आप थकते क्यों नहीं?” जैसे सवाल पत्रकारिता के माथे पर कलंक हैं।
- फैक्ट चेक की मौत: व्हाट्सएप पर तैरते झूठ को राष्ट्रीय टीवी पर ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ बनाकर चलाया जाता है। नैनो-चिप वाले नोटों से लेकर तमाम अवैज्ञानिक दावों ने भारतीय मीडिया को दुनिया भर में हंसी का पात्र बना दिया है।
डिजिटल मीडिया : अंधेरे में जुगनू की चमक –इस घनघोर अंधकार में अगर कहीं रोशनी है, तो वह डिजिटल मीडिया और यू-ट्यूब (YouTube) पर सक्रिय स्वतंत्र पत्रकारों के पास है।
- जब बड़े कैमरे सत्ता की गोद में बैठे थे, तब मोबाइल थामे स्वतंत्र पत्रकारों ने जनता को सच दिखाया।
- लेकिन सत्ता को यह भी रास नहीं आ रहा। नए आईटी कानून (IT Rules) और स्वतंत्र पत्रकारों पर होती एफआईआर (FIR) यह बताने के लिए काफी है कि सच की आवाज़ को दबाने की कोशिशें हर स्तर पर जारी हैं।
अंतिम सत्य : दर्शक ही असली दोषी हैं – अंत में, उंगली सिर्फ मीडिया पर उठाना बेईमानी होगी। मीडिया वही बेच रहा है, जो हम खरीद रहे हैं।
जब तक हम ‘सेंसेशनल डिबेट्स’ को TRP देंगे, जब तक हमें नफरत परोसने वाले एंकर्स में अपना ‘हीरो’ दिखेगा, तब तक पत्रकारिता का यह पतन नहीं रुकेगा।
आज की पत्रकारिता वेंटिलेटर पर है। अगर हमने अभी भी रिमोट बदलकर या अखबार बंद करके इसका बहिष्कार नहीं किया, तो तैयार रहिए—आने वाले समय में हमें ‘नागरिक’ नहीं, बल्कि ‘मानसिक गुलाम’ बनाने की पूरी तैयारी हो चुकी है।
“पत्रकारिता का काम पुल बनाना नहीं, बल्कि यह बताना है कि पुल टूट रहा है। लेकिन आज का मीडिया यह बता रहा है कि नदी ही गलत बह रही है।”




