
✍️ ऋषिकेश मिश्रा (स्वतंत्र पत्रकार)
भारतीय संविधान केवल एक विधिक दस्तावेज़ नहीं, बल्कि इस राष्ट्र की आत्मा है- वह आत्मा जो हमें बताती है कि सत्ता जनता की है, और जनता ही इस देश की अंतिम निर्णायक शक्ति है। आज जब संविधान दिवस मना रहे हैं, तो यह याद रखना ज़रूरी है कि यह वही संविधान है जो भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य की पहचान देता है। यह वह आधारशिला है जिसके दम पर दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र खड़ा हुआ है और हर चुनौती से लड़कर आगे बढ़ा है।
लेकिन सच यह भी है कि संविधान की ताकत उसके पन्नों में नहीं, बल्कि उन मूल्यों में है जिन्हें हम जीवित रखते हैं। अगर समाज में भेदभाव बढ़ रहा हो, अगर सत्ता जवाबदेही भूल रही हो, अगर आम नागरिक अपने अधिकारों और कर्तव्यों से दूर हो रहा हो तो संविधान की आत्मा घायल होती है। इसलिए आज सबसे बड़ा प्रश्न यह नहीं कि संविधान कितना महान है, बल्कि यह कि क्या हम उसके आदर्शों को उतनी ही ईमानदारी से निभा रहे हैं? संविधान हमें समानता, न्याय और स्वतंत्रता का आश्वासन देता है, लेकिन इन मूल्यों को जमीन पर उतारने की जिम्मेदारी हमारी है- आपकी, मेरी, और इस देश के हर नागरिक की।
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान देते समय चेताया था कि अगर सामाजिक अन्याय और असमानता को खत्म नहीं किया गया, तो राजनीतिक लोकतंत्र टिक नहीं पाएगा। यह चेतावनी आज भी उतनी ही सटीक है। संविधान दिवस इसलिए केवल उत्सव का दिन नहीं, बल्कि आत्ममंथन का दिन है- एक दर्पण, जिसमें हमें खुद को देखना चाहिए कि क्या हम सच में एक न्यायपूर्ण और समान भारत बनाने की दिशा में खड़े हैं, या केवल औपचारिकताएँ निभा रहे हैं।
आज जरूरत है कि नागरिक डर से मुक्त हों, सत्ता जवाबदेह बने, और समाज जागरूक। संविधान की जीत तभी होगी जब कोई भी कमजोर आवाज दबाई न जाए, कोई भी नागरिक अधिकारों से वंचित न हो, और कोई भी सत्ता अपनी सीमा न लांघ सके।
संविधान की रक्षा सिर्फ अदालतें नहीं करतीं – हम सभी करते हैं।
संविधान दिवस का अर्थ केवल यह नहीं कि हम उसे याद करें, बल्कि यह कि हम उसे जीएँ – अपने विचारों में, अपनी भाषा में, अपने कामों में और समाज के प्रति अपने व्यवहार में। इसीलिए आज का संकल्प यही होना चाहिए कि चाहे कितनी भी चुनौतियाँ क्यों न आएँ, हम संविधान के आदर्शों- न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व- की मशाल को बुझने नहीं देंगे।



