पेलमा कोयला खदान : ग्रामीणों की शर्तों और विरोध को दरकिनार कर आगे बढ़ी कंपनियों की चाल ; वन भूमि पर सबसे पहले नजर, निजी जमीन पीछे!…

रायगढ़। कोयला कंपनियों की प्राथमिकता अब साफ हो चुकी है – पहले वन भूमि हथियाओ, फिर निजी जमीन की बारी आएगी। ताजा मामला तमनार ब्लॉक का है, जहां एसईसीएल (SECL) की पेलमा कोयला खदान के लिए वन भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया तेज कर दी गई है।
तमनार तहसीलदार ने पेलमा, हिंझर, जरहीडीह और खर्रा पंचायतों के सरपंचों व सचिवों को पत्र जारी कर ग्रामसभा की एनओसी, प्रस्ताव और उपस्थिति पंजी की सत्यापित प्रति मांगी है। यह कदम तब उठाया गया है, जब खदान आवंटन के बाद से ग्रामीणों का लगातार विरोध और सर्वे की प्रक्रिया पर रोक बनी हुई है।
गौरतलब है कि पेलमा खदान को एसईसीएल ने एमडीओ मॉडल पर अडाणी इंटरप्राइजेस को सौंपा है। यह पहली बार है जब कोल इंडिया की किसी खदान को आउटसोर्सिंग के जरिए चलाया जा रहा है।
ग्रामीणों की सीधी मांग – “60 लाख प्रति एकड़, नौकरी या 10 लाख नकद”
पिछले दिनों पेलमा, उरबा, मिलूपारा, लालपुर और हिंझर पंचायतों के सरपंचों ने संयुक्त रूप से प्रशासन को मांग पत्र सौंपा था।
उनकी मुख्य शर्तें—
- प्रति एकड़ 60 लाख रुपए या न्यूनतम सर्किल दर से मुआवजा।
- प्रति एकड़ एक नौकरी, या नौकरी के बदले 10 लाख रुपए नकद।
- विस्थापन लाभ 10 लाख रुपए प्रति परिवार।
- छह महीने के भीतर रोजगार देने की गारंटी।
- भूमिहीन परिवारों को एमडीओ में रोजगार या वैकल्पिक दुकान।
- 2005 से पहले से काबिज वन भूमि धारकों को पट्टा और मुआवजा।
- भूमि व संपत्ति का एकमुश्त भुगतान, सर्वे की तारीख को ही कटऑफ डेट मानने की शर्त।
- खाता विभाजन पर लगी रोक हटाने की मांग।
बड़ा सवाल : विकास या विस्थापन?
एसईसीएल ने 293 हेक्टेयर वन भूमि और 69 हेक्टेयर राजस्व वन भूमि के लिए अनुमति मांगी है। लेकिन सवाल यह है कि—
- जब तक ग्रामीणों की सहमति स्पष्ट नहीं, तब तक वन भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया आगे बढ़ाना क्या कानूनन उचित है?
- ग्रामसभा की असली सहमति ली जाएगी या केवल कागजों में हस्ताक्षर करवाकर खानापूर्ति होगी?
- क्या अडाणी को सौंपे गए इस पहले एमडीओ मॉडल के जरिए आदिवासी और ग्रामीणों की जमीनें नए कॉर्पोरेट प्रयोग की प्रयोगशाला बनेंगी?
ग्रामीणों का साफ कहना है – बिना सम्मानजनक मुआवजा, रोजगार और विस्थापन पैकेज के कोई भी जमीन नहीं दी जाएगी। सवाल अब यह है कि शासन–प्रशासन ग्रामसभा की आवाज सुनेगा या फिर कंपनियों की मंशा के आगे एक बार फिर लोकतंत्र की सबसे बड़ी पंचायत को औपचारिकता में बदल देगा?
यह रिपोर्ट कंपनियों की रणनीति बनाम ग्रामीणों के हक़ की टकराहट को सामने रखती है और सीधा सवाल उठाती है— क्या विकास के नाम पर एक और विस्थापन गाथा लिखी जा रही है?