रूमकेरा में सरपंच की तानाशाही : परिवार पर ‘हुका-पानी बंद’ , सामाजिक बहिष्कार से इंसाफ की लड़ाई पर हमला…

रायगढ़। लोकतंत्र की जड़ों को झकझोर देने वाली एक हैरान करने वाली घटना सामने आई है। ग्राम पंचायत रूमकेरा के सरपंच ने अपनी दबंगई और सामंती रवैये का परिचय देते हुए एक परिवार पर न सिर्फ झूठे आरोप मढ़े बल्कि पूरे गांव में मुनादी कराकर उनका ‘हुका-पानी बंद’ और सामाजिक बहिष्कार भी थोप दिया।
परिवार का कसूर सिर्फ इतना था कि उन्होंने अपने घर के सामने बनाए जा रहे सामुदायिक भवन के निर्माण को लेकर रास्ता बंद होने के खिलाफ हाईकोर्ट से स्थगन आदेश ले लिया। इस न्यायिक लड़ाई की कीमत आज उन्हें सामाजिक बंहिस्कार और मानसिक प्रताड़ना झेलकर चुकानी पड़ रही है।

क्या है मामला? – पीड़ित परिवार ने एसडीएम को दिए अपने ज्ञापन में कहा है कि:
- सरपंच द्वारा उनके घर के सामने सामुदायिक भवन निर्माण से रास्ता पूरी तरह अवरुद्ध हो रहा था।
- इस निर्माण को रोकने के लिए उन्होंने अदालत से स्थगन आदेश प्राप्त किया।
- इसी के बाद सरपंच ने बदले की भावना से उन्हें पंप चोरी जैसे झूठे मामले में फंसाने का प्रयास किया।
- 30 अगस्त 2025 को गांव में ढोल-नगाड़े से मुनादी कराकर फरमान सुनाया गया कि – “अगर कोई भी ग्रामीण उस परिवार से संबंध रखेगा, तो उस पर ₹10,000 का जुर्माना लगाया जाएगा।”
- इसके बाद पूरा गांव उनसे बात करने और मेलजोल रखने से पीछे हट गया, जिससे परिवार पूरी तरह बंहिस्कृत हो गया।
कानून और संविधान को खुली चुनौती : भारत का संविधान हर नागरिक को गरिमापूर्ण जीवन जीने और न्याय की मांग करने का अधिकार देता है। लेकिन पंचायत स्तर पर सरपंच के इस सामंती फरमान ने न सिर्फ लोकतंत्र की आत्मा को आहत किया है, बल्कि कानून-व्यवस्था पर भी बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है।
सामाजिक बहिष्कार जैसा अमानवीय कृत्य, आज के दौर में, न सिर्फ मानवाधिकारों का हनन है बल्कि यह दंडनीय अपराध की श्रेणी में भी आता है। सवाल है—क्या पंचायतें अब लोकतंत्र की चौपाल हैं या फिर सामंती दबंगों का अखाड़ा?
न्याय की गुहार : मानसिक, सामाजिक और आर्थिक संकट से जूझ रहे पीड़ित परिवार ने एसडीएम से तत्काल हस्तक्षेप और न्याय की मांग की है। उनका कहना है कि अगर प्रशासन सख्त कदम नहीं उठाता, तो यह मिसाल पूरे क्षेत्र में अन्याय और तानाशाही को बढ़ावा देगी।
बड़ा सवाल : जहां लोकतंत्र की चौपाल सजनी चाहिए, वहां आज भी सामंती फरमानों की गूंज सुनाई दे रही है। यह सिर्फ एक परिवार का मामला नहीं है, बल्कि इंसाफ और इंसानियत की लाज का सवाल है।
क्या लोकतंत्र में सरपंच का फरमान अदालत और संविधान से बड़ा हो गया है?