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विशेष खबर: सुप्रीम कोर्ट की ऐतिहासिक टिप्पणी- “पिता के शव को दफनाने के लिए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाना दुर्भाग्यपूर्ण”

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ के एक गंभीर मामले पर सुनवाई करते हुए एक सख्त और ऐतिहासिक टिप्पणी की। कोर्ट ने कहा कि यह बहुत दुखद है कि किसी व्यक्ति को अपने पिता का अंतिम संस्कार करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय तक आना पड़ा। यह टिप्पणी उस मामले में दी गई, जिसमें छत्तीसगढ़ के सुभाष बघेल के शव को दफनाने के लिए गांव में धार्मिक भेदभाव के कारण विवाद पैदा हो गया था। सुभाष बघेल, जो आदिवासी हिंदू थे, ने बाद में ईसाई धर्म अपनाया था।

उनके निधन के बाद, गांव के कुछ लोगों ने उनका शव दफनाने का विरोध किया, क्योंकि उन्होंने धर्म परिवर्तन किया था। सुभाष का शव पिछले 12 दिनों से शवगृह में पड़ा हुआ था। उनके बेटे, रमेश बघेल ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी, जिसमें उन्होंने अपने पिता को उनके पूर्वजों के पास दफनाने की अनुमति की मांग की थी।

कोर्ट की कड़ी टिप्पणी : जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की बेंच ने मामले पर सुनवाई करते हुए कहा, “किसी व्यक्ति को क्यों नहीं दफनाने दिया जा सकता जहां उसके परिजन चाहते हैं?” कोर्ट ने यह भी कहा कि यह दुख की बात है कि एक व्यक्ति को अपने पिता के अंतिम संस्कार के लिए उच्चतम न्यायालय तक आना पड़ा, जबकि न तो पंचायत और न ही उच्च न्यायालय इस मामले को सुलझा सके थे।

सुप्रीम कोर्ट ने इस दौरान यह भी स्पष्ट किया कि एक व्यक्ति के धार्मिक विश्वासों के कारण उसे असमंजस और भेदभाव का सामना नहीं करना चाहिए। कोर्ट ने यह सुनिश्चित करने की बात की कि हर नागरिक को अपने धार्मिक अधिकारों का पूरी तरह से सम्मान मिलना चाहिए।

सॉलिसिटर जनरल और याचिकाकर्ता का पक्ष :  सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत को बताया कि गांव में ईसाइयों के लिए कोई कब्रिस्तान नहीं है और मृतक को 20 किलोमीटर दूर दफनाने की सलाह दी गई थी। उन्होंने यह भी कहा कि यह मामला भावनाओं के आधार पर नहीं, बल्कि कानून और व्यवस्था के दृष्टिकोण से हल किया जाना चाहिए।

वहीं याचिकाकर्ता के वकील, सीनियर एडवोकेट कॉलिन गोंजाल्विस ने आरोप लगाया कि यह मामला धार्मिक भेदभाव का है, क्योंकि सुभाष बघेल के परिवार के अन्य सदस्य उसी कब्रिस्तान में दफनाए गए थे। गोंजाल्विस ने कहा कि यह एक मिसाल स्थापित करने की कोशिश हो रही है कि यदि कोई धर्म परिवर्तन करता है, तो उसे गांव से बाहर किया जाएगा।

अगली सुनवाई और भविष्य की दिशा : सुप्रीम कोर्ट ने मामले की अगली सुनवाई 22 जनवरी को तय की है और कहा कि इस पर जल्दबाजी में कोई फैसला नहीं लिया जाएगा। अदालत ने यह भी कहा कि मामले की पूरी तरह से जांच की जाएगी, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि किसी भी नागरिक को धार्मिक भेदभाव का शिकार नहीं बनने दिया जाए।

यह मामला केवल एक व्यक्ति की व्यक्तिगत यात्रा नहीं, बल्कि एक समाज के भीतर धार्मिक असहिष्णुता, प्रशासनिक विफलता और मानवाधिकारों का उल्लंघन का प्रतीक बन गया है। सुप्रीम कोर्ट का यह कदम भारत के समाज में धर्म, समुदाय और समानता के मामलों में एक महत्वपूर्ण मोड़ हो सकता है, जहां हर नागरिक को बिना किसी भेदभाव के अपने विश्वासों के अनुसार जीने का अधिकार है।

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