भालूपखना बना बारूद का मैदान : धनबादा कंपनी का विकास नहीं, आदिवासी नरसंहार चल रहा है – शासन चुप, प्रशासन गूंगा-बहरा!…

धरमजयगढ़ (रायगढ़)। छत्तीसगढ़ के आदिवासी भूभाग में अब विकास की भाषा बारूद बोल रही है, और सत्ता-तंत्र इस खूनी भाषा का अनुवाद भी नहीं करना चाहता। धरमजयगढ़ के भालूपखना गांव में धनबादा कंपनी द्वारा किए जा रहे बेतहाशा, अनियंत्रित और अमानवीय विस्फोट अब सीधे आदिवासी जीवन के खिलाफ युद्ध बन चुके हैं।
26 जून की शाम:
एक भयावह धमाके ने इस शांत आदिवासी गांव को युद्धक्षेत्र में बदल दिया।
4:30 बजे शाम, जब बच्चे खेल रहे थे, महिलाएं रसोई में थीं और बुज़ुर्ग दुआ कर रहे थे, तब अचानक ऐसा धमाका हुआ कि गांव का सीना फट गया।
गगन से बरसे पत्थर, मानो मौत ने आकाश से हमला बोल दिया हो। घरों की छतें टूटीं, दीवारें धंसीं, खप्पर उड़े, और आंखों में उतर आया आतंक।
एक मां की गवाही:
“साहब, मेरी बच्ची के बगल में आकर गिरा पत्थर। एक इंच इधर-उधर होता, तो उसकी लाश उठानी पड़ती… आप बताइए, यह क्या है – विकास या हत्या?”
कंपनी के धमाके, प्रशासन की चुप्पी – क्या यह सांठगांठ है?
धनबादा कंपनी की यह हरकत अब पर्यावरणीय उल्लंघन नहीं, सामूहिक मानवाधिकार हिंसा है।
ग्रामीणों के अनुसार, यह कोई पहली घटना नहीं — पिछले कई महीनों से हर सप्ताह धमाके, हर दिन डर और हर रात सिसकियाँ चल रही हैं।
कलेक्टर, एसपी, खनिज अधिकारी और जनप्रतिनिधियों को एक नहीं, दर्जनों बार शिकायत दी गई।
पर नतीजा? शून्य।
आवेदन फाइलों में बंद हैं, और धमाकों की गूंज अब मासूमों की चीख से टकरा रही है।
2 हज़ार का मुआवज़ा और धमकी – “कहीं मुंह मत खोलना…”
घटना के बाद कंपनी के गुर्गे पहुंचे — मुआवज़ा नहीं, घूस और धमकी लेकर!
पीड़ितों को 2 से 5 हजार रुपये देकर कहा गया:
“बस अब चुप रहो। कहीं ज़्यादा बोले, तो अंजाम भुगतोगे!”
क्या यही विकास है?
यह मुआवज़ा नहीं, मुंह बंद कराने की सुपारी है।
यह सहानुभूति नहीं, संगठित अपराध है।
“पहले ज़मीन छीनी, अब ज़िंदगी लील रहे हैं!” कमलसाय की चीत्कार
कमलसाय, जो कभी अपने खेतों में फसल उगाते थे, आज वहां से पत्थर उगल रहे हैं।
“अब तो खेत गए, अब जान भी जाएगी। कोई बच्चा मर गया तो कौन जिम्मेदार होगा — डीएम या सीएम?”
क्या आदिवासी जीवन की कोई कीमत नहीं?
क्या कोई उद्योग अब सीधे लोगों की जान लेकर भी बच सकता है?
खनिज लूट, पर्यावरण हत्या – और सरकार देखती रह गई?
ग्रामीणों का आरोप है –
- कंपनी ने अधिग्रहण से कहीं ज़्यादा भूमि पर अवैध कब्ज़ा किया है।
- विस्फोट की मात्रा, डंपिंग, निर्माण – सब कुछ नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए किया जा रहा है।
- आसपास की पहाड़ियों, जल स्रोतों और जंगलों को बिना किसी पर्यावरणीय स्वीकृति के रौंदा जा रहा है।
यह सब 7.5 मेगावाट बिजली उत्पादन के नाम पर हो रहा है – यानी जितनी रोशनी बाहर जलेगी, उससे कहीं ज़्यादा अंधेरा इन गांवों की छाती पर फैलेगा।
सवाल सत्ता से है, और जवाब ज़रूरी है –
- क्या आदिवासी जीवन की कोई कानूनी गारंटी नहीं बची?
- क्या उद्योगपति अब सरकारी संरक्षण में नरसंहार चला सकते हैं?
- क्या विकास के नाम पर पूरी की पूरी बस्ती को विस्फोटों से उड़ाना संवैधानिक है?
अगर अब भी शासन-प्रशासन मौन है, तो यह चुप्पी अपराध की साझेदारी मानी जाएगी।
भालूपखना जल रहा है – और राजधानी में चुप्पी है!
ये महज़ एक गांव की कहानी नहीं, यह उस भारत की सच्चाई है, जो आदिवासियों की छाती पर खनिज और मुनाफे का बुलडोजर चला रहा है।
अब गांव चुप नहीं रहेगा।
अब सवाल सिर्फ एक है —
क्या इस बार कोई मरेगा… तब कार्रवाई होगी?
या फिर, पहले से सबकुछ बिक चुका है?