NHM कर्मियों की वेतन त्रासदी पर रायगढ़ से फूटा आक्रोश : शासन का मौन अब शर्मनाक है…!

रायगढ़, 22 अप्रैल 2025। छत्तीसगढ़ सरकार की सबसे बड़ी स्वास्थ्य सेवा योजना राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) का असली चेहरा तब सामने आता है, जब आप इसके हज़ारों संविदा कर्मचारियों की ज़िंदगी में झांकते हैं। रायगढ़ सहित प्रदेश के 21 जिलों में मार्च 2025 का वेतन आज तक अप्राप्त है। खबर ये नहीं कि वेतन नहीं मिला, खबर ये है कि सरकार को फर्क ही नहीं पड़ता।
पिछली बार भी दिसंबर और जनवरी का वेतन फरवरी में मिला था, यानी दो महीने की मेहनत का भुगतान एक साथ जैसे कोई उधार चुकाया जा रहा हो! अब फिर वही हाल मार्च की पगार भी लटक रही है, और बताया जा रहा है कि “बजट मई में आएगा, तभी देंगे।” तो सवाल ये है : क्या कर्मचारी अपनी सेवाओं के बदले भीख मांगें? सरकार का सिस्टम इस हद तक असंवेदनशील हो गया है कि-
- बच्चों की फीस की आखिरी तारीख निकल जाती है,
- मकान मालिक किराया मांग कर धमका रहा है,
- बुजुर्ग माता-पिता की दवाएं उधारी में खरीदी जा रही हैं,
- और स्वास्थ्य कर्मी खुद पेट काटकर मरीजों की सेवा कर रहे हैं।
“जिस हाथ से जीवन देते हैं, उसी हाथ को शासन भीख का पात्र बना रहा है!” कोई अधिकारी इस पर बोलने को तैयार नहीं। यानी प्रशासन सोया नहीं है जानबूझकर आंख मूंद रखा है।
अब ये केवल वेतन का मामला नहीं रहा, यह एक पूरी व्यवस्था के चरित्र पर सवाल है :
- जब स्वास्थ्य कर्मी ही आर्थिक शोषण झेल रहे हैं,
- जब राज्य सरकार की योजनाओं के ज़मीनी क्रियान्वयनकर्ता ही दर-दर भटक रहे हैं,
- जब संविदा कर्मचारी सरकार के लिए खर्च और बोझ बन चुके हैं।
वर्तमान में रायगढ़, कोरबा, कोरिया, सूरजपुर, कबीरधाम, बलौदाबाजार, जशपुर, कांकेर, गौरेला-पेंड्रा, दुर्ग, मनेन्द्रगढ़, मुंगेली, चिरमिरी, सारंगढ़-बिलाईगढ़, कोंडागांव जैसे 21 से अधिक जिलों में हालात एक जैसे हैं। लाखों लोग प्रभावित हैं, और शासन के पास सिर्फ एक बहाना है “बजट नहीं है। तो फिर चुनाव, दौरे, होर्डिंग, प्रचार के लिए पैसा कहां से आता है?” क्या कर्मियों की मेहनत से चलने वाले सिस्टम में उन्हीं के लिए बजट नहीं?
अब जवाब शासन को देना होगा : अगर सरकार संविदा कर्मचारियों को “सिर्फ ज़रूरत पड़ने पर याद करने वाली ताक़त” समझती है, तो यह प्रदेश की नीति, नीयत और संवेदनशीलता तीनों पर बड़ा प्रश्नचिन्ह है। तो फिर हम ये सवाल क्यों न पूछा जाए कि छत्तीसगढ़ की ‘जनकल्याणकारी’ सरकार की प्राथमिकता क्या सिर्फ नारों तक सीमित है?