छत्तीसगढ़

ब्राह्मण समाज पर विवादित टिप्पणी से घिरे अनुराग कश्यप, रायपुर में FIR; ‘फुले’ फिल्म से भड़का जातीय विवाद…

रायपुर।प्रख्यात फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप जातीय विवाद और सामाजिक असहमति की आग में घिर चुके हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में उनके खिलाफ सिटी कोतवाली थाना में भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 196 और 302 के तहत एफआईआर दर्ज की गई है। यह मामला उनके ब्राह्मण समाज के खिलाफ सोशल मीडिया पर की गई कथित आपत्तिजनक टिप्पणी को लेकर दर्ज हुआ है। शिकायतकर्ता पंडित नीलकंठ त्रिपाठी ने इसे समाज विशेष की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला बताया है।

‘फुले’ फिल्म बनी चिंगारी, जातीय विभाजन बना शोला : विवाद की जड़ें अनुराग कश्यप की आगामी फिल्म ‘फुले’ से जुड़ी हैं, जो समाज सुधारकों ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले के जीवन पर आधारित है। यह फिल्म जाति व्यवस्था और सामाजिक बदलाव की थीम पर बनी है, लेकिन रिलीज से पहले ही इसे लेकर ब्राह्मण समाज और हिंदू संगठनों में रोष व्याप्त है। आरोप है कि फिल्म और उसके प्रचार के दौरान दिए गए बयानों में ब्राह्मणों को जातिवाद का प्रतीक बनाकर प्रस्तुत किया गया, जिससे समाज में विभाजन और नफरत को हवा मिल रही है।

सोशल मीडिया पर अनुराग की टिप्पणी ने बढ़ाया आक्रोश : फिल्म के प्रचार के बीच अनुराग कश्यप ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट साझा किया, जिसमें ब्राह्मण समाज को लेकर की गई टिप्पणी ने विवाद को ज्वालामुखी में बदल दिया। हिंदू संगठनों ने इसे योजनाबद्ध ‘ब्राह्मण विरोधी प्रोपेगेंडा’ करार दिया और कोतवाली थाने में ज्ञापन सौंपकर एफआईआर की मांग की थी, जिसके बाद पुलिस ने तत्काल मामला दर्ज कर लिया।

अनुराग कश्यप की माफी : ‘माफी मांगता हूं, लेकिन पूरी पोस्ट के लिए नहीं’

भारी ट्रोलिंग और गुस्से के बीच अनुराग कश्यप ने इंस्टाग्राम पर एक पोस्ट साझा कर माफी मांगी। उन्होंने लिखा “मैं माफी मांगता हूं, लेकिन अपनी पूरी पोस्ट के लिए नहीं। उस एक लाइन के लिए जो गलत तरीके से ली गई और नफरत फैलाई गई।”
उन्होंने आगे कहा  “कोई भी बयान इतना अहम नहीं होता जितना आपकी बेटी, परिवार, दोस्त और अपने लोग होते हैं। उन्हें रेप और जान से मारने की धमकियां दी जा रही हैं और यह सब वे लोग कर रहे हैं जो खुद को संस्कारी कहते हैं।”

यह मामला अब केवल एक व्यक्ति की टिप्पणी तक सीमित नहीं रहा। यह भारतीय समाज में सहिष्णुता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जातीय पहचान के टकराव का जीवंत उदाहरण बन चुका है। सवाल यह है कि क्या कलात्मक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता समाज के किसी वर्ग को आहत करने का अधिकार देती है? या फिर यह सारा हंगामा सामाजिक न्याय बनाम परंपरागत पहचान की लड़ाई है?

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