अंबिकापुर

वर्दी पर ‘कॉर्पोरेट’ का कलंक : सरगुजा में कोयले की दलाली में पुलिस बनी ‘गुंडा’, LCC की तिजोरी भरने किसानों के सीने पर चले पत्थर!…

सरगुजा। क्या छत्तीसगढ़ की पुलिस अब ‘कानून की रक्षक’ है या निजी कंपनियों की ‘प्राइवेट आर्मी’? बुधवार को सरगुजा के परसोढ़ी गांव में जो हुआ, उसने खाकी वर्दी पर बदनुमा दाग लगा दिया है। मुनाफा LCC कंपनी का, दलाली सिस्टम की और खून गरीब आदिवासियों का। अमेरा खदान के विस्तार के नाम पर प्रशासन ने लखनपुर को जलियांवाला बाग बनाने की कोशिश की, जहाँ 500 पुलिसकर्मियों की फौज अपने ही नागरिकों का दमन करने पहुंची थी। नतीजा- 25 पुलिसकर्मी और दर्जनों ग्रामीण अस्पताल में हैं। यह विकास नहीं, ‘विनाश का तांडव’ है।

लोकतंत्र या लठतंत्र? – प्रशासनिक अमला बुधवार को ‘बातचीत’ करने नहीं, बल्कि ‘युद्ध’ लड़ने गया था।

  • 500 की फौज क्यों? निहत्थे ग्रामीणों, महिलाओं और बुजुर्गों से जमीन छीनने के लिए इतनी पुलिस फोर्स? यह सीधा सबूत है कि प्रशासन को पता था कि वे गलत कर रहे हैं, इसलिए ‘बाहुबल’ का सहारा लिया गया।
  • पत्थर और आंसू गैस: जब ग्रामीणों ने अपनी रोजी-रोटी बचाने के लिए गुलेल उठाई, तो पुलिस ने भी संयम खो दिया। ग्रामीणों पर पत्थरों की बारिश की गई और आंसू गैस के गोले दागकर उन्हें जानवरों की तरह खदेड़ा गया।

नियमों की अर्थी और कंपनी की आरती : यह पूरा खूनी खेल एक निजी कंपनी LCC (Lakhwinder Construction Company) का इन्वेस्टमेंट बचाने के लिए खेला गया।

  • SECL की आड़ में खेल : खदान SECL की है, लेकिन मलाई LCC खा रही है। ग्रामीणों का साफ आरोप है कि कंपनी के ‘करोड़ों के निवेश’ को डूबने से बचाने के लिए जिला प्रशासन ने अपनी नैतिकता बेच दी है।
  • 24 साल का धोखा : 2001 में जमीन अधिग्रहित हुई। कानून (भूमि अधिग्रहण अधिनियम) चीख-चीख कर कहता है कि “5 साल तक जमीन का उपयोग न हो तो वह किसान को वापस होगी”। लेकिन यहाँ अफसर नियमों की किताब बंद करके कंपनी के ‘मुंशी’ बनकर काम कर रहे हैं।

‘हम भीख नहीं मांगेंगे’ – यह गुहार नहीं, ललकार है : ग्रामीण लीलावती का बयान किसी भी संवेदनशील इंसान को झकझोरने के लिए काफी है: “हमारे बेटे और नाती भीख मांगें, ताकि कंपनी वाले महलों में रहें?”

हैरत की बात है कि 80% से ज्यादा किसानों ने मुआवजा नहीं लिया, फिर भी प्रशासन “सहयोग” की बात कर रहा है। साहब, कनपटी पर बंदूक रखकर मांगा गया सहयोग, ‘लूट’ कहलाता है।

अफसरों का कुतर्क : “बाधा डाल रहे हैं” – ​अपर कलेक्टर सुनील नायक कह रहे हैं कि ग्रामीण “खनन में बाधा” डाल रहे हैं।

सवाल आपसे है कलेक्टर साहब :

  1. ​क्या अपनी पुश्तैनी जमीन बचाना अपराध है?
  2. ​क्या बिना मुआवजे और पुनर्वास के बुलडोजर चलाना “प्रशासनिक धर्म” है?
  3. ​जब 2016 के बाद से वहां काम ही नहीं हुआ, तो 2025 में अचानक यह ‘इमरजेंसी’ क्यों?

खून के छींटे किस पर? – ​इस पत्थरबाजी में ASP अमोलक सिंह और थाना प्रभारी अश्वनी सिंह घायल हुए हैं। इनका खून बहने के जिम्मेदार वो ‘सफेदपोश’ हैं, जिन्होंने एसी कमरों में बैठकर जबरन कब्जे का आदेश दिया।

सरगुजा की माटी अब सवाल पूछ रही है – यह सरकार ‘जनता’ की है या ‘जेब भरने वाली कंपनियों’ की? जब तक इसका जवाब नहीं मिलता, परसोढ़ी गांव का हर पत्थर प्रशासन के लिए चुनौती बना रहेगा।

Admin : RM24

Investigative Journalist & RTI Activist

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