अतिक्रमण का खेल : वन विभाग की मौन सहमति, कुसुमकसा में अवैध कब्जे का मामला सुर्खियों में

फिरोज अहमद खान (पत्रकार)
बालोद। जिले के दल्ली राजहरा वन परिक्षेत्र के कुसुमकसा स्थित वन विभाग के नाके पर एक अजीबोगरीब मामला सामने आया है। वन विभाग द्वारा घोषित “अतिक्रमण मुक्त क्षेत्र” में एक ऐसा अवैध कब्जा हुआ है, जो विभाग के लिए एक सिरदर्द बन चुका है। अब सवाल यह उठता है कि जब वन विभाग के अधिकारी स्वयं इस मामले में चुप्पी साधे हुए हैं, तो क्या मामला सिर्फ़ “बातों का ताना-बाना” है?
आपने अक्सर सुना होगा कि जंगलों में बाघ और हाथी रहते हैं, लेकिन कुसुमकसा में तो “कभी हिम्मत, कभी किस्मत” नामक अद्भुत जीव का शासन है! नाका पर अवैध कब्जा करने वाला व्यक्ति यह कहने में जरा भी संकोच नहीं करता कि, “मेरा कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। मेरे संबंध तो ऊपर तक हैं!” और सचमुच, क्या यह अतिक्रमण एक महज़ जमीन की लड़ाई है या सत्ता और सम्पर्कों की ‘सौदेबाजी’?
सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, कुसुमकसा के डिप्टी रेंजर चौधरी को एक अजीब सा ‘संकट’ दिया गया था। पांच अंकों की राशि से रिश्वत के रूप में एक ऐसा “स्मारक उपहार” प्राप्त किया गया है, जो निश्चित तौर पर किसी अन्य विभागीय कार्यवाही को अवरुद्ध कर सकता है। और नतीजा – वन विभाग का ‘एक्शन’ केवल चर्चा का विषय बनकर रह गया।
अब सवाल यह उठता है कि क्या कुसुमकसा का यह अवैध कब्जा सिर्फ़ एक स्थानीय समस्या है या यह विभागीय लापरवाही का लक्षण है? जब डीएफओ बलभद्र सरोटे ने कहा था कि “अतिक्रमण नहीं होना चाहिए”, तो क्या उन्हें इस खतरनाक अवैध कब्जे का ‘सामना’ करना चाहिए था, या ‘व्यक्तिगत संपर्क’ के कारण वे अपनी आँखें बंद कर बैठे हैं? दरअसल, यह मामला ‘दाल में कुछ काला है’ का एक बेहतरीन उदाहरण बन गया है, जहां हर तरफ़ चुप्पी है, लेकिन कुसुमकसा में हर कोई जानता है कि इसका कोई गहरा ताल्लुक है।
अतिक्रमण करने वाला व्यक्ति कहता है, “मेरे तो अफसर भी मेरे साथ हैं, बड़े अधिकारी के साथ अच्छे रिश्ते हैं। कुसुमकसा के बड़े नेता भी मेरे आगे झुकते हैं।” अगर यह सच है, तो क्या कुसुमकसा में सिर्फ़ अवैध कब्जे का ही नहीं, भ्रष्टाचार का भी व्यापार चल रहा है?
वैसे, अगर गुप्त सूत्रों की मानें, तो प्रधान मुख्य वन संरक्षक भी इस मुद्दे पर मौन हैं, जैसे कि वो स्वयं इस ‘अतिक्रमण’ को एक अनौपचारिक सहमति दे चुके हों। क्या विभाग अपनी जिम्मेदारियों से इतने लापरवाह हो चुका है, या फिर यह मामला विभागीय कनेक्शन्स का ‘खास खेल’ है?
दु:खद बात यह है कि राजहरा रेंजर ने भी आंख में ‘काला चश्मा’ पहन लिया है। अवैध कब्जे और विभागीय भ्रष्टाचार के इस खेल को देखकर तो यही लगता है कि अगर वन विभाग के अधिकारी अपनी कार्यवाहियों को सही से अंजाम देने में सफल हो जाएं, तो शायद कुसुमकसा का यह ‘विशेष दर्जा’ ही समाप्त हो जाए! अब देखना यह है कि क्या किसी दिन “वन विभाग” खुद अपनी ही समस्याओं को सुलझाने में सफल हो पाएगा, या फिर कुसुमकसा के अवैध कब्जे का यह खेल हमेशा चलता रहेगा।
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