“सच के तीन चेहरे : जब ‘केवल सत्य’ गूंगे बहरे समाज से टकराता है”: ऋषिकेश मिश्रा (स्वतंत्र पत्रकार)…

जब हर कोई अपने-अपने सच की ढाल लेकर खड़ा हो, तब ‘केवल सत्य’ को तलवार बनाना पड़ता है। यह लेख उसी तलवार की धार पर लिखा गया है। पढ़िए, झकझोर देने वाली हकीकत – बिना लाग-लपेट, सीधे सीने में उतरती हुई।
सत्य का त्रिकोण : समाज की सबसे बड़ी त्रासदी : “आपका सत्य, उनका सत्य और केवल सत्य”-यह तीनों शब्द अब अख़बार की सुर्खियाँ नहीं, बल्कि युद्धभूमि बन चुके हैं। हर व्यक्ति अपने अनुभव, अपने स्वार्थ और अपने पूर्वाग्रह से लैस होकर जो देखता है, उसे ही ‘अंतिम सत्य’ मान लेता है। लेकिन सच्चाई यह है कि सच अब तीन हिस्सों में नहीं, टुकड़ों में बिखर गया है- कभी न्यूज़ स्टूडियो की चीखों में, कभी राजनीतिक रैलियों के वादों में और कभी सोशल मीडिया की अफ़वाहों में।
राजनीति : सत्य को जितना मरोड़ो, उतना वोट पक्का : राजनीतिक गलियारों में सत्य की हैसियत एक ‘स्पीच राइटर’ से ज़्यादा नहीं। नेता वही कहता है जो उसे सुनाना है – not what is true, but what is profitable. जाति, धर्म और क्षेत्रवाद- हर मुद्दा घुमाकर अपने ‘सत्य’ की माला में पिरो दिया जाता है, और जनता उस माला को “जनमत” समझ बैठती है। जब झूठ बार-बार दोहराया जाए तो वह ‘तथ्य’ जैसा दिखने लगता है। यही आज के राजनीतिक सत्यों का आधार है।
मीडिया : जब माइक ‘मसीहा’ नहीं, ‘मुखौटा’ बन जाए : कभी पत्रकारिता को ‘वॉचडॉग’ कहा जाता था-अब वह ‘लाउडस्पीकर’ बन चुकी है। किसी न्यूज़ चैनल की डिबेट देख लीजिए- एक पक्ष का सच इतने ज़ोर से चिल्लाया जाता है कि बाकी सत्यों की आवाज़ सुनाई ही नहीं देती। जो पूछे वो ‘देशद्रोही’, जो बोल न सके वो ‘नपुंसक’ और जो सच बोले- वो ‘ट्रायल में’ होता है। ‘केवल सत्य’ कैमरे से बाहर खड़ा इंतज़ार करता है… कि कोई उसे भी इन्वाइट करे।
न्यायपालिका : जहां तथ्य जीतते हैं, पर सत्य हार जाता है : अदालतों में केस नहीं चलते, बल्कि ‘कहानी’ सुनाई जाती है-काग़ज़ों की, गवाहों की और कभी-कभी झूठ की। यहां भी वही तीन सत्य मौजूद होते हैं – वकील का, विरोधी का और एक निर्णय, जो इन दोनों की बहस पर आधारित होता है… न कि केवल सत्य पर। जब सच्चा आदमी सबूत न दे पाए और झूठा पूरी स्क्रिप्ट पढ़ जाए- तब कानून ‘न्याय’ नहीं, ‘नियम’ बनकर रह जाता है।
जनता : सबसे बड़ा अपराध-सत्य से दूरी : लेकिन सबसे बड़ा सवाल है-क्या हम इस झूठ की मंडी के जिम्मेदार नहीं हैं?
हम ही वो हैं जो अपनी पसंद के अनुसार सत्य चुनते हैं। हमें सिर्फ वही सुनाई देता है जो हमारे मत के अनुकूल हो बाकी को हम ‘एजेंडा’ कहकर नकार देते हैं। हकीकत ये है कि आज केवल सत्य मर नहीं रहा, हम उसे मार रहे हैं… हर दिन, हर फ़ॉरवर्ड, हर लाइक, और हर चुप्पी से।
‘केवल सत्य’ को अब घोषणा नहीं, क्रांति चाहिए : अब वक़्त आ गया है कि ‘केवल सत्य’ को किताबों से निकालकर सड़कों पर लाया जाए। सत्य अब नैतिक भाषण का विषय नहीं, सामाजिक क्रांति की जरूरत है। हमें वो सत्य चाहिए जो असहज हो, जो चुभे, जो हिला दे-क्योंकि अगर सत्य आरामदायक लगे, तो वह शायद आपका भ्रम है… सत्य नहीं।