संविधान-स्थगित बस्तर : लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन की अनकही दास्तां – संजय पराते

बस्तर में लोकतंत्र और संविधान के अस्तित्व पर एक बार फिर सवाल खड़ा हो गया है। आदिवासियों से जबरन जमीन छीने जाने, विरोध करने वालों को माओवादी बताकर जेलों में डालने और सवाल उठाने वालों की संदिग्ध मौतों की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। हाल ही में युवा आदिवासी नेता रघु मीडियामी की गिरफ्तारी ने इसे और गहरा कर दिया है। क्षेत्र में नागरिक अधिकारों की खुलेआम अनदेखी हो रही है, जहां सरकार की प्राथमिकता आम जनता के अधिकारों से ज्यादा कॉरपोरेट हितों की रक्षा करना नजर आती है। क्या बस्तर में सचमुच लोकतंत्र बचा है, या यह सिर्फ एक दावा बनकर रह गया है?
फर्जी आत्मसमर्पण और पुलिसिया दमन की कहानी : 2014 में इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट ने खुलासा किया था कि कैसे बस्तर में फर्जी आत्मसमर्पण कराकर आंकड़ों का खेल खेला गया। जनवरी 2009 से मई 2014 के बीच सिर्फ 139 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया था, जबकि 2014 में सिर्फ छह महीनों के भीतर 377 आत्मसमर्पण कराए गए। इनमें से 270 के खिलाफ कोई पुलिस रिकॉर्ड ही नहीं था। सवाल यह है कि यह आत्मसमर्पण थे या निर्दोष आदिवासियों का जबरन समर्पण? मार्च 2017 में एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया की फैक्ट-फाइंडिंग रिपोर्ट ने बताया कि बस्तर में पत्रकार भी स्वतंत्र रूप से रिपोर्टिंग नहीं कर सकते। उनका फोन टेप किया जाता है, निगरानी रखी जाती है और उन्हें चुनने पर मजबूर किया जाता है कि वे सरकार के साथ हैं या माओवादियों के।
बस्तर में बढ़ता सैन्यीकरण और आदिवासियों के अधिकारों का हनन : छत्तीसगढ़ सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, भाजपा सरकार के पहले आठ महीनों में:
- 147 माओवादी मुठभेड़ों में मारे गए
- 631 आत्मसमर्पण हुए
- 723 गिरफ्तारियां हुईं
लेकिन सवाल यह उठता है कि इनमें से कितने वास्तव में नक्सली थे और कितने निर्दोष ग्रामीण? बस्तर में हर 2-7 किमी. के बीच एक सुरक्षा कैंप मौजूद है। कांग्रेस सरकार के दौरान 2019-2023 के बीच 250 से अधिक कैंप स्थापित किए गए, और अब भाजपा सरकार ने एक साल के भीतर 50 नए कैंप बना दिए हैं। “नियाद नेल्लानार (मेरा गांव खुशहाल) योजना” के नाम पर सुरक्षा कैंपों का विस्तार किया जा रहा है, लेकिन आदिवासी इनकी “खुशहाली” को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।
अबूझमाड़ में सेना का युद्धाभ्यास रेंज – किसकी कीमत पर? : अब भाजपा सरकार अबूझमाड़ में 54,000 हेक्टेयर (1.35 लाख एकड़) भूमि पर सेना का युद्धाभ्यास रेंज बनाने की तैयारी में है। इसके लिए 52 गांवों को विस्थापित किया जाएगा। सवाल उठता है कि यह परियोजना आदिवासियों की सहमति से लागू होगी या बंदूक की नोक पर?
रघु मीडियामी की गिरफ्तारी – लोकतांत्रिक आंदोलनों का दमन? : रघु मीडियामी सिलगेर आंदोलन से उभरे एक युवा आदिवासी नेता हैं। मई 2021 में सिलगेर में आदिवासियों के प्रदर्शन के दौरान पुलिस की गोलीबारी में एक गर्भस्थ शिशु सहित पांच लोगों की मौत हुई थी। इसके बाद रघु ने “मूलवासी बचाओ मंच” के तहत आंदोलन शुरू किया, जो आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन और पेसा कानून के तहत अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहा था।

अक्टूबर 2023 में भाजपा सरकार ने मूलवासी बचाओ मंच पर प्रतिबंध लगा दिया। सरकार ने इसे “राज्य और केंद्र सरकार की पहलों का विरोध करने वाला संगठन” बताया, लेकिन इस पर किसी आपराधिक गतिविधि में शामिल होने का आरोप नहीं लगाया। अब रघु मीडियामी को प्रतिबंधित 2000 रुपये के नोट रखने और माओवादियों को धन देने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है, जबकि एफआईआर में उनका नाम तक नहीं था।
न्याय की उम्मीद कहां? : रघु मीडियामी की गिरफ्तारी इस बात का प्रमाण है कि बस्तर में लोकतांत्रिक अधिकार खतरे में हैं। यह पहली बार नहीं है जब आदिवासियों की आवाज को दबाने के लिए फर्जी मामले गढ़े गए हैं। इससे पहले सरजू टेकाम और सुनीता पोटाई को भी गिरफ्तार किया गया था, क्योंकि वे भी संसाधनों की लूट के खिलाफ आंदोलन का हिस्सा थे।
बस्तर में लोकतंत्र की असली परीक्षा : बस्तर भारत का वह इलाका है, जहां संविधान की ताकत कमजोर पड़ जाती है और लोकतंत्र सिर्फ एक दिखावा बनकर रह जाता है। माओवाद को खत्म करने की आड़ में आदिवासियों को उनके जल, जंगल, जमीन से बेदखल करने की कोशिशें तेज हो गई हैं। आज जब देशभर में लोकतंत्र और संविधान की रक्षा की बात की जाती है, तो बस्तर की सच्चाई को समझना जरूरी है। क्या हम एक ऐसे लोकतंत्र को स्वीकार करेंगे, जहां संविधान के अधिकार सिर्फ शहरी आबादी तक सीमित रह जाएं और आदिवासियों के लिए बंदूक और पुलिस ही शासन का पर्याय बन जाए?