रायगढ़

खेती का मौसम आया, पर ‘खाद’ तो गायब है साहब! लैलूंगा में किसान पंक्तियों में खड़े हैं, और अधिकारी ‘आरामगृह’ में पड़े हैं!…

रायगढ़। जिले में लैलूंगा के किसान इन दिनों केवल खेती नहीं कर रहे, बल्कि खाद खोज यात्रा भी कर रहे हैं। धान की बुआई का समय है, पर खेतों में बीज से पहले निराशा और इंतज़ार बोए जा रहे हैं। कारण वही पुरानी सरकारी पटकथा – खाद है, पर मिलेगा नहीं; अफसर हैं, पर दिखेंगे नहीं; तंत्र है, पर चलता नहीं।

मंडी परिसर – ‘साइलेंस ज़ोन’ घोषित : लैलूंगा मंडी का हाल देखकर लगता है जैसे उसे किसी परित्यक्त स्मारक में बदल दिया गया हो। किसान जब भी वहाँ खाद या जानकारी के लिए पहुँचते हैं, उन्हें केवल एक ‘मौन ऑपरेटर’ मिलता है, जो स्वयं भी ‘सिस्टम डाउन’ जैसी स्थिति में होता है। प्रबंधक और अन्य ज़िम्मेदार अधिकारी ‘दृश्यहीन प्राणी’ बन चुके हैं। किसानों को हर बार बस एक ही उत्तर मिलता है – “साहब अभी बाहर हैं, जल्दी आ रहे हैं।”

KCC – किसान क्रेडिट कार्ड नहीं, ‘किसान चक्कर कार्ड’ : सरकार ने किसानों को गर्व के साथ KCC यानी किसान क्रेडिट कार्ड दिया पर अब वही कार्ड किसानों के लिए ‘किसान चक्कर कार्ड’ बन चुका है। जब खाद लेने जाओ, तो बहानों की फसल तैयार मिलती है “Acknowledgement नहीं आया”, “डेटा अपलोड नहीं हुआ”, “सर्वर काम नहीं कर रहा”, या “आपका नाम लिस्ट में नहीं है।” किसान अब खाद नहीं, अफसरों के टाल-मटोल के खेत काट रहे हैं।

SDM – ‘साइलेंट डेवलपमेंट मैनेजर’ : इस पूरे संकट का केंद्र हैं – SDM कार्यालय। जब तक उनकी कलम से खाद वितरण हेतु Acknowledgement जारी नहीं होता, तब तक सरकारी खाद गोदाम का ताला नहीं खुलता। किसान SDM कार्यालय और मंडी के चक्कर लगाते रहते हैं, और जवाब मिलता है “डॉक्यूमेंटेशन पूरा नहीं हुआ है।” किसान पूछते हैं “जब खेत सूख जाएंगे, तब कागज़ सींचकर क्या उगाएँ?”

जवाब वही पुराना – “जल्द ही सब ठीक हो जाएगा” : जब पत्रकारों ने मंडी प्रबंधन और अधिकारियों से स्थिति पर सवाल किए, तो उत्तर मिला – “बहुत जल्द सब ठीक हो जाएगा।” यह “जल्द” वही है जो सालों से किसानों को धैर्य और भ्रम के घोल के रूप में पिलाया जा रहा है। किसान अब कह रहे हैं – “जब बुआई का समय ही निकल गया, तब खाद से क्या करेंगे – प्रसाद बनाएंगे?”

निजी दुकानें – मुनाफाखोरी की फसल तैयार :किसान मजबूरी में अब निजी दुकानों का रुख कर रहे हैं, जहाँ खाद उन्हें सोने के भाव मिल रही है। जिनके पास पैसे हैं, वे किसी तरह खरीद कर काम चला रहे हैं, और जिनके पास नहीं हैं वे हाथ पर हाथ रखे मौसम को कोस रहे हैं।

योजनाएं बहुत हैं, ज़मीन पर ‘यातना’ ज़्यादा : किसानों का कहना है “सरकार की योजनाओं की सूची इतनी लंबी है कि अगर उसे खेत में बो दें, तो फसल शायद आ जाए। लेकिन ज़मीन पर जब ज़रूरत होती है, तब सिस्टम या तो अपडेट नहीं होता या ‘नेटवर्क एरर’ बता देता है।”

एक बुज़ुर्ग किसान ने व्यंग्य में कहा – “कागज़ों में हम अमीर हो चुके हैं, लेकिन खेत आज भी सूने खड़े हैं।”

प्रश्न वही – ज़िम्मेदार कौन? – क्या इस संकट के लिए केवल SDM कार्यालय ज़िम्मेदार है? या मंडी प्रबंधन की निष्क्रियता इसकी जड़ में है? अफसोस की बात यह है कि जवाबदेही तय करने वाला कोई नहीं है। प्रशासन मौन है, और किसान त्रस्त।

लैलूंगा में खाद का संकट अब सिर्फ एक कृषि समस्या नहीं, बल्कि शासन की असंवेदनशीलता और तंत्र की निष्क्रियता का सजीव उदाहरण बन चुका है। किसान केवल आर्थिक नहीं, मानसिक और सामाजिक हानि भी झेल रहे हैं। यदि प्रशासन शीघ्र ही कोई ठोस कदम नहीं उठाता, तो यह असंतोष बड़े आंदोलन का रूप ले सकता है।

और अंत में –

“खेती का समय है,
पर खाद नहीं है साथ,
किसान अब खुद को
समझने लगे हैं अभिशप्त !”

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